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धर्म आस्था- मोहर्रम में पैकार बनने जुटते हैं सभी धर्माें के लोग, तीन दिनों तक पैकार का निभाया जाता है फर्ज, पढ़ें पूरी खबर

इमामबाड़ों पर चढ़ाये जा रहे छोटे ताजिया, किया गया नेयाज फातिया, हाय हसन-हाय हुसैन के साथ इमामबाड़े व करबला के दर्शन में भाग दौड़ करते नजर आने लगे पैकार

Report by Nawada News Xpress 

नवादा / सूरज कुमार 

मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है। इस महीने का दसवां दिन बेहद अहम होता है। कहा जाता है कि इसी दिन पैगंबर हजरत मोहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन एक धर्मयुद्ध में शहीद हुए थे। इस दिन को अशुरा यानि मुहर्रम कहा जाता है।

इस पर्व का मुख्य आकर्षण बांस की पतली लकड़ियों से बने ढांचे के होते हैं जिन्हें ताजिया कहा जाता है। इसका वर्णन इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक हदीस में देखने को मिलता है। यह बातें नेशनल इस्लामिक फेस्टिवल्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष नेजाम खां कल्लू ने कही,

उन्होंने कहा कि समय के साथ ताजिया निर्माण में काफी बदलाव आया है। मक्का-मदीना आदि के स्वरूप का ताजिया बनाया जाने लगा है। उन्होंने कहा कि मुहर्रम के 7वें दिन से पैकार बनने की परम्परा भी शुरू हो चुकी है। शहर के विभिन्न इमामबाड़ों पर लोग पैकार बनकर आस्था के साथ खाली पांव अराधना करने झुंड बनाकर निकलते हैं।

खाली पांव सड़कों पर पैदल चलकर तीन दिनों तक इमामबाड़े व कर्बला पर पहुंच इबादत किया जाता है। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिन्दुओं का भी भरपुर सहयोग मिलता है। इस पर्व में पैकार बनने वाले हिन्दु मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग होते हैं। इसे सौहार्द का पर्व भी कहा जाता है।

क्यों मनाया जाता है मुहर्रम
अध्यक्ष बताते हैं कि इस महीने में इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है। याजीद की सेना के विरुद्ध जंग लड़ते हुए इमाम हुसैन के पिता हजरत अली का संपूर्ण परिवार मौत के घाट उतार दिया गया था और मुहर्रम के दसवें दिन इमाम हुसैन भी इस युद्ध में शहीद हो गए थे।

जिसके बाद शहीद हसन-हुसैन की याद में मुहर्रम के दसवें दिन ही मुस्लिम संप्रदाय द्वारा ताजिया निकाले जाते हैं। जिसमें लकड़ी, बांस व रंग-बिरंगे कागज से सुसज्जित ये ताजिए हजरत इमाम हुसैन के मकबरे के प्रतीक माने जाते हैं। ताजिया जुलूस में इमाम हुसैन के सैन्य बल के प्रतीक स्वरूप अनेक शस्त्रों के साथ युद्ध की कलाबाजियां दिखाते हुए लोग चलते हैं। 

मुहर्रम के जुलूस में लोग इमाम हुसैन के प्रति अपनी संवेदना दर्शाने के लिए बाजे पर शोक-धुन बजाते हैं और शोक गीत (मर्सिया) गाते हैं। मुस्लिम संप्रदाय के लोग शोकाकुल होकर विलाप भी करते हैं और अपनी छाती पीटते हैं। इस प्रकार इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है।

करबला में होता है ताजिए का पहलाम
करबला के महत्व पर उन्होंने बताया कि ताजिए का पहलाम हर साल करबला में करने की परम्परा है। बेबीलोनियाई सभ्यता के अनुसार करबला का शाब्दिक अर्थ- ईश्वर का पवित्र स्थान होता है। करबला का इस्लाम धर्म में एक अलग ही महत्व है

और इस्लाम में सिया और सुन्नी संप्रदाय के बीच विवाद में भी करबला का एक अलग स्थान है। वैसे तो मूल रूप से करबला इराक के मध्य में स्थित एक ऐतिहासिक और पवित्र शहर है। ये शहर बगदाद से 55 मील यानि 88 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित है।

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